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यू॒यं हि दे॑वीर्ऋत॒युग्भि॒रश्वैः॑ परिप्रया॒थ भुव॑नानि स॒द्यः। प्र॒बो॒धय॑न्तीरुषसः स॒सन्तं॑ द्वि॒पाच्चतु॑ष्पाच्च॒रथा॑य जी॒वम् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yūyaṁ hi devīr ṛtayugbhir aśvaiḥ pariprayātha bhuvanāni sadyaḥ | prabodhayantīr uṣasaḥ sasantaṁ dvipāc catuṣpāc carathāya jīvam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यू॒यम्। हि। दे॒वीः॒। ऋ॒त॒युक्ऽभिः॑। अश्वैः॑। प॒रि॒ऽप्र॒या॒थ। भुव॑नानि। स॒द्यः। प्र॒ऽबो॒धय॑न्तीः। उ॒ष॒सः॒। स॒सन्त॑म्। द्वि॒ऽपात्। चतुः॑पात्। च॒रथा॑य। जी॒वम् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:51» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यूयम्) आप लोग जैसे (चरथाय) भ्रमण के लिये (ससन्तम्) शयन करते हुए (जीवम्) प्राणधारी को (प्रबोधयन्तीः) जगाती हुई (उषसः) प्रातर्वेला (द्विपात्) दो पादवाले मनुष्य आदि और (चतुष्पात्) चार पैरवाली गौ आदि के सदृश (सद्यः) शीघ्र (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों को प्राप्त होती हैं, वैसे (हि) ही (ऋतयुग्भिः) सत्य से युक्त (अश्वैः) बड़े बलिष्ठ और पुरुषार्थियों के साथ (देवीः) दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव युक्त स्त्रियों को (परिप्रयाथ) सब ओर से प्राप्त होओ ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन उत्तम गुणों से युक्त, विदुषी, सुन्दर, अपने सदृश स्त्रियों को प्राप्त होते हैं वे सदा ही प्रातःकाल के सदृश प्रकाशमान और सब के बोधक होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे नरा ! यूयं यथा चरथाय ससन्तं जीवं प्रबोधयन्तीरुषसो द्विपाच्चतुष्पाद्वत्सद्यो भुवनानि गच्छन्ति तथा ह्यृतयुग्भिरश्वैर्देवीः स्त्रियः परिप्रयाथ ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यूयम्) (हि) (देवीः) दिव्यगुणकर्मस्वभावाः (ऋतयुग्भिः) य ऋतेन सत्येन युञ्जते तैः (अश्वैः) महाबलिष्ठैः पुरुषार्थयुक्तैः (परिप्रयाथ) सर्वतः प्राप्नुयात् (भुवनानि) लोकलोकान्तराणि (सद्यः) शीघ्रम् (प्रबोधयन्तीः) जागरयन्त्यः (उषसः) (ससन्तम्) शयानम् (द्विपात्) द्वौ पादौ यस्य स मनुष्यादिः (चतुष्पात्) चत्वारः पादा यस्य स गवादिः (चरथाय) (जीवम्) प्राणधारिणम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये शुभगुणान्विता विदुषीर्हृद्याः स्वसदृशीर्भार्याः प्राप्नुवन्ति ते सदैवोषर्वत्प्रकाशमानाः सर्वेषां ज्ञापका भवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपलंकार आहे. जे लोक शुभ गुणांनी युक्त विदुषी, सुंदर आपल्यासारख्याच स्त्रियांशी लग्न करतात ते नेहमी उषेप्रमाणे प्रकाशमान सर्वांचे ज्ञापक (बोधक) असतात. ॥ ५ ॥